Thursday, April 2, 2015

स्वयं अपने प्रति सत्यनिष्ठ रहें

स्वयं अपने प्रति सत्यनिष्ठ रहने का तात्पर्य है कि हम अपने आप से कुछ भी न छुपाए क्योकि हमारे हर अच्छे और बुरे कर्मो के साक्षी सबसे पहले हम स्वयं ही होते है। आधुनिक युग मे सुख की कामना कौन नही करता? सभी लोग प्रातःकाल उठते ही मशीन की तरह अपने.अपने कार्यो मे लग जाते हैं और रात्रि मे सोने से पहले तक अंधाधुध  अपने.अपने कार्यो के संपादन मे लगे रहते है। इस आधुनिक और मशीनी युग मे हमारी आत्मा कही खो सी गई है। हम सब कुछ जानते है मगर स्वयं को नही पहचानते ये बात हमारे लिये बहुत ही घातक सिद्ध हो रही है। इस भौतिकवादी युग मे मानव केवल और केवल एक मशीन बनकर रह गया है। जिसके पास स्वयं के लिये वक्त नही है ऐसा व्यक्ति केवल और केवल विनाश करता है विकास कभी नही कर सकता। मनुष्य का या मानव जाति का विकास तभी संभव है जब वह अपने शरीर के साथ.साथ अपने मन. बुद्धि और आत्मा के प्रति भी सत्यनिष्ठ रहे। 
                   आज हम अपने बच्चों को बहुत कम उम्र मे ही इस भौतिक जगत मे अकेले छोड दे रहे है जिसके कारण उसका परिचय सबसे होता है लेकिन वह स्वयं को पहचानना भूल जाता है। व्यक्ति जब तक स्वयं को पहचानेगा नही स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ कैसे होगा ये प्रश्न बडा ही विचारणीय है।
            प्रचीन काल मे जब गुरूकुल शिक्षाप्रणाली थी तब विद्यार्थी का परिचय पहले स्वयं से कराया जाता था। एक विद्यार्थी को सर्वप्रथम यह बताया जाता था कि वह कौन है और इस दुनिया मे वह क्यूॅ आया है। इस दुनिया को छोडकर उसे जाना भी है इसलिये उसे इस दुनिया की अच्छाइयो को ग्रहण करना होगा और बुराइयो से कोसो दूर रहना होगा। जब उसे अपने जीवन का उद्देश्य पता हो जाता था। जब वह स्वयं को भली.भांति पहचान लेता था। जब उसे कत्र्तव्याकत्र्तव्य का ज्ञान हो जाता था तभी उसे इस भौतिकवादी जगत मे लोगो से व्यवहार करने के लिये भेजा जाता था। गुरू के ज्ञान व उपदेशो को जो विद्यार्थी अपने जीवन मे नही अपनाता था उसकी दशा दुर्योधन व उनके भाइयों की तरह होती थी जो भौतिक सुख की कामना मे अपने जीवन को ही खो बैठते है और उन्हे कुछ भी हासिल नही होता। 
                  हमे स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ रहने का ज्ञान मिलता है गीता से। गीता मे श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया है वह हमे यह सिखाता है कि हमे स्वयं के प्रति सदैव सत्यनिष्ठ रहना चाहिये और ऐसा करने से व्यक्ति केवल लौकिक सुख ही नही पारलौकिक सुख को भी प्राप्त कर लेता है। जो व्यक्ति स्वयं को पहचानता है और स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ रहता है वह सदैव जागृत अवस्था मे अपना जीवन यापन करता है अतः वह अपने कार्यो का संपादन सदैव सजग रहकर करता है और सही ढंग से अपने कार्यो के निष्पादन के फलस्वरूप वह दुनिया मे एक आदर्श स्थापित करता है। स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठा का आदर्श अर्जुन ने श्री कृष्ण के उपदेशो को ग्रहण करने के पश्चात स्थापित किया है। कौरवो की अपार सेना उनके विरूद्ध खडी हो गई परंतु अर्जुन ने हार नही मानी क्योकि वे स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ थे। अगर वे किसी भी प्रकार से  भावनाओ मे बहकर अपने स्वजनो के द्वारा किये गये अन्याय को स्वीकार कर लेते तो वे स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ नही हो पाते और न ही इतना बडा आदर्श मानव जगत मे स्थापित कर पाते।
             हमे हर घडी इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि दुनिया की नजरो मे गिरने वाला व्यक्ति पुनः उठ जाता है परंतु स्वयं अपनी ही नजरो मे गिरने वाला व्यक्ति फिर कभी नही उठ पाता। मनुष्य अपनी उन्नति या पतन का कारण स्वयं होता है। हम सारी दुनिया से झूठ बोल सकते है परंतु अपने आप से झूठ नही बोल सकते। जो व्यक्ति स्वयं अपनी इज्जत नही करता दुनिया भी उसकी इज्जत नही करती अतएव हमे अपने आत्मोन्नति के लिये सदैव दृढचित्त व स्थिरबुद्धि होकर अपने कत्र्तव्य कर्मो को करते हुए स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ होना चाहिये।

3 comments: