पता नहीं इंसान,इंसान से क्यूँ डरता है?
शायद उसे पता नहीं होता कि , वह भी एक इंसान है।
जो आसमा को धरती पर ला दे,
ऐसी उसमे जान है।
उसी के त्याग,तपस्या और बलिदान पे,
टिका ये सारा जहां है।
आसमाँ से भी उँचे और महान ,
उसके अरमान है।
अपने सारे अरमानो को जो पूरा कर सके,
इतना वो बलवान है।
पता नहीं फिर अपनी ही ताकत पर वो ,
क्यूँ इतना शक करता है,
पता नहीं इंसान,इंसान से क्यूँ डरता है?
सदियों से वीरो की गाथा ,
किसमें इतनी ताकत है जो,
पीछे उसे हटा पाए ।
रास्ते में उसके कितने चाहे,
आँधी या तूफाँ आए,
हिम्मत क्या वो बाधाओं को ,
देख के जो घबरा जाए ,
मंजिल जिसको पाना है वो,
शोलों से भी गुजरता है।
पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?
घर की भी इकाई होती है,
खुद घर एक इकाई नहीं ,
घर की सुंदरता के पीछे ,
किस ईंट कुर्बानी नहीं?
छज्जे के ईंट से पूछो क्या वो ,
नींव के ईंट की दीवानी नहीं
फिर दीवारों के ईंट सा भी,
क्या ताकत नहीं वो रखता है?
पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?
क्या होता चाँद के पीछे जो ,
सूरज का हाथ नहीं होता ?
क्या होता जो धरती के पास
सूरज का प्रकाश नहीं होता ?
किसी बचपन के सर पे जो ,
किसी आँचल का छाँव नहीं होता?
कहता है कौन , किसी दिल में ,
ईश्वर का वास नहीं होता,
अपने इस जीवन के पीछे ,
किसी श्वास का हाथ नहीं होता ?
हर शक्ति अपने पास रखा वो
खुद से ही दूर क्यों रहता है?
पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?
शायद उसे पता नहीं होता कि , वह भी एक इंसान है।
जो आसमा को धरती पर ला दे,
ऐसी उसमे जान है।
उसी के त्याग,तपस्या और बलिदान पे,
टिका ये सारा जहां है।
आसमाँ से भी उँचे और महान ,
उसके अरमान है।
अपने सारे अरमानो को जो पूरा कर सके,
इतना वो बलवान है।
पता नहीं फिर अपनी ही ताकत पर वो ,
क्यूँ इतना शक करता है,
पता नहीं इंसान,इंसान से क्यूँ डरता है?
सदियों से वीरो की गाथा ,
अमर रही इस धरती पर ।
जिनकी गाथा आज यहाँ है,
वे भी थे कल धरती पर ।
खेले खाए बड़े हुए थे , उनके भी घर थे धरती पर ,
अंतर यह था अटल विस्वास,
था पूरा उन्हें अपने पर।
पता नहीं फिर खुद को इतना ,
गिरा हुआ क्यूँ समझता है । पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?
पीछे उसे हटा पाए ।
रास्ते में उसके कितने चाहे,
आँधी या तूफाँ आए,
हिम्मत क्या वो बाधाओं को ,
देख के जो घबरा जाए ,
मंजिल जिसको पाना है वो,
शोलों से भी गुजरता है।
पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?
घर की भी इकाई होती है,
खुद घर एक इकाई नहीं ,
घर की सुंदरता के पीछे ,
किस ईंट कुर्बानी नहीं?
छज्जे के ईंट से पूछो क्या वो ,
नींव के ईंट की दीवानी नहीं
फिर दीवारों के ईंट सा भी,
क्या ताकत नहीं वो रखता है?
पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?
क्या होता चाँद के पीछे जो ,
सूरज का हाथ नहीं होता ?
क्या होता जो धरती के पास
सूरज का प्रकाश नहीं होता ?
किसी बचपन के सर पे जो ,
किसी आँचल का छाँव नहीं होता?
कहता है कौन , किसी दिल में ,
ईश्वर का वास नहीं होता,
अपने इस जीवन के पीछे ,
किसी श्वास का हाथ नहीं होता ?
हर शक्ति अपने पास रखा वो
खुद से ही दूर क्यों रहता है?
पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?
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