Thursday, April 30, 2015

एक खत दुश्मन के नाम

मैं तो जीना चाहता था ,
एक गुमनाम सी जिंदगी ,
हर लबों पे मेरा नाम बसाने के लिए,
ऐ दोस्त शुक्रिया !
मैं  तो चला जा रहा था,
मदमस्त सुनसान सी गली में,
इस भीड़ भरी बस्ती में लाकर ,
अनेकों हमराह दिलाने के लिए ,
ऐ दोस्त शुक्रिया !
मैं तो खोया था, मगन था,
एक फूल की ही खुशबू मे ,
अनेकों गुलदस्ते दिलाने के लिए ,
ऐ दोस्त शुक्रिया !
गर तू न होता तो,
मेरे जज्बात,मेरे अफ़साने ,
लोगों तक पहुँचते कैसे ?
मुझे लोगों के बीच,
 साबित करवाने के लिए ,
ऐ दोस्त शुक्रिया !
अच्छा जीवन जीना है तो ,
दोस्त ही काफी नहीं ,
दुश्मनों का होना भी ,
बेहद जरुरी है । 
मुझे तरक्की पे तरक्की,
 दिलाने के लिए ,
ऐ दोस्त शुक्रिया !
तू न होता तो मैं ,
गुमनामी के ढेर में खो जाता,
मुझे इस तरह से ,
महफ़िलों में सजाने के लिए ,
ऐ दोस्त तेरा शुक्रिया! 

Wednesday, April 22, 2015

झाँसी की रानी के किस्से


दर्द गर गैरों से मिलता तो बात ही क्या थी,
हमें तो अपनों ने लूटा है,उसी की सजा पा रहें हैं । 
शिकायत गर करें तो किससे और क्या?
हँस-हँस के गम अपनों का उठा रहें है। 
जब भी बात आई कि अपना और पराया कौन ?
इशारे  दर्द देने वालों की तरफ ही आ रहें है। 
पराया कहें तो किसे कहें ,हम तो अपनों से ही,
हर वक्त जख्म खा रहें है। 
शीशा टूटता है जैसे शीशे से टकराकर ,
बस  वैसे ही अपनों की शक्ल में, पराये की झलक पा रहे  हैं। 
जानते हैं की दोस्त की शक्ल में , दुश्मन हमारे करीब हैं, 
मजबूरी ही है  जो उसके कदम से कदम  मिला रहे हैं। 
ऐसे अपनों से दूर होना, इतना आसान नहीं है,
क्योंकि लोग हमें , ऐसे ही घड़ियों में आजमा रहे हैं। 
आसान सा जीवन अगर जिये  तो क्या जिये ऐ राही ,
महान तो वही लोग हैं, जो काटों पर चलकर अपनी मंजिल पा रहे  हैं। 
दफना भी दो गयी अगर अकेले में तो क्या,
लोग आज भी झाँसी की रानी के किस्से सुना रहे हैं। 

Tuesday, April 21, 2015

माँ


माँ तू ममता की देवी है।
पथ्थर दिल को पिघला दे ,
माँ इतनी तुझमें शक्ति है।
ईश्वर को धरती पर ला दे ,
इतनी तुझमें भक्ति है।

वीर जवाहर गाँधी जैसे ,
कितने तुमने पुत्र जने ।
तेरी ही शिक्षा से तो माँ ,
भगत और आजाद बने।

माँ तू अपने बच्चों को,
अमृतमय जीवन देती है।
माँ तू जीवन को कितना,
पावन-पावन कर देती है।

घाव सभी तन-मन के माँ ,
स्नेह से तू भर देती है।
बुरे वक्त से लड़ने को ,
फौलादी थाती देती है।

युद्ध भूमि में लाल को अपने ,
कैसे विदा कर देती है?
जन-जन की रक्षा को तू,
बलिदान रक्त का देती है।

माँ तू कैसे चुपके-चुपके ,
अपने आँसू पी लेती है?
अपने बच्चों की रक्षा को तू,
प्राण भी दे देती है।

मेरे लिए तो माँ तू ही ,
माँ दुर्गा और सरस्वती है।
माँ तू ममता की देवी है,
माँ तू ममता की देवी है।

Monday, April 13, 2015

एक दीप जला देना



उजड़े चमन में फूल खिला देना ,
बिछड़े दिलों को मिला देना,
यदि इतना भी न कर सको तो ,
अँधेरे में एक दीप  जला  देना । 

दीये की एक किरण ,
हर लेगी तिमिर मन का ,
सारे दोष काफूर हो जाएंगे ,
मिट जाएगा अंधेरा गम का । 

कभी किसी की खुशी को देख ,
अपने सारे गम भुला देना,
यदि इतना भी न कर सको तो,
अंधेरे में एक दीप जला देना। 

मत भटकाना पथ में तुम ,
किसी भी राहगीर को ,
याद रखना अपने मौला को,
और ध्यान में रखना फकीर को । 

रोते हुए को हँसा देना ,
गिरते हुए को उठा लेना ,
गर तुम कुछ न दे पाए तो,
मिलने का पता बता देना ,
यदि इतना भी न कर सको तो,
अंधेरे में एक दीप जला देना।  

नई सुबह



हर सुबह सुहानी होती है ,
अंदाज निराला होता है,
मुस्कुरा के देखो तो ,
कांटे भी फूल लगते हैं ,
अगर आँखे आपकी नम हो ,
जग गम का प्याला लगता है, 

हर सुबह सूरज की किरणे,
इस तन मन को छू जाती हैं ,
जब मन ही  सोया सोया हो ,
ये जग सपना  सा लगता है.
बस  एक नजर प्यार की,
दुश्मन पर भी डालो तो ,
जाने कितने बरसों का वो ,
दोस्त अपना सा लगता है। 
जाने कितने बरसों का वो ,
दोस्त अपना सा लगता है। 
 

सच्चाई

सच्चाई तो सच्चाई है,
एक दिन सामने आती ही है। 
झूठ मन मसोसकर एक दिन,
सच्चाई से लजाती ही है। 
सच्चाई का सीना हमेशा ,
तना हुआ ही रहता है। 
झूठ तो हमेशा ही,
नजरें चुराती ही है,
नजरें झुकाती ही है। 
ये माना कि 
सच्चाई की राह  चलना ,
आसान नहीं है,
बड़ा ही कठिन है,
पर केवल एक ही नहीं ,
बल्कि सारी दुनिया,
अंत में सच्चाई को ,
 अपनाती ही है। 
अंत में सच्चाई को ,
अपनाती ही है। 

Tuesday, April 7, 2015

एक नई सुबह

 सुबह हुई और दिल जागा ,
किसी की चंचल हँसी से,
ये तन-मन खिल गया ,
किसी के आँखों के स्पर्श से ही ,
सारी  रुसवाई जाती रही ,
और करुणा की वही आवाज,
पुनः बुलाने लगी ,
ये कर्मभूमि और ये,
हिम्मत की बुलंदिया , 
पुनः मन को लुभाने लगी ,
साथ ही हजारो भूखे रूठे लोगों की ,
छवि आखों में आने लगी,
जाने कितने असहायों की,
करूँण  ध्वनियां सताने लगी,
उठ खड़ी हुई मैं  मुझसे,
करूँण  दृश्य न देखा गया ,
चल पड़ी मैं उन राहों में,
जहाँ से ये आवाजे आ रही थी ,
मगर उन राहों में मैंने ,
कई महारथियों के मेले,
सजे सवेरे और अलबेले ,
अंजानों से जाते देखा,
और यह कहकर इतराते देखा कि ,
ये सब कर्मों का ही फल है,
मगर अफ़सोस ,
उन्हें मालुम नहीं कि ,
कल का आज ही ,
आज का कल है,  
जो कर्म ही न जानता हो,
वह कर्मफल क्या जानेगा ?
जिसने न दर्द उठाया हो,
औरों का दुःख कैसे मानेगा ?
ऐसे ही कर्मों के फल में ,
ये महारथी न पड़ जायें ,
जो पग अम्बर पर पड़ते हैं ,
दलदल में कहीं न धँस  जाएँ,
तब ये भी चीखेंगे ऐसे ही,
ऐसे ही मेले गुजरेंगे,
 जो आज इन्होंने ने सोचा है,
कल वे भी ऐसा ही सोचेंगे,
यारों ऐसे न मुँह मोड़ो ,
टूटे दिल को तुम,
और न तोड़ो,
इन चित्कारों ने भी कभी ,
चंचल सी हँसी बिखराई  थी ,
ये भी तो कभी सुख भोगी थे जो ,
आज दुखों को भोग रहें हैं,
अपनी बीती कहकर ये ,
तुमको भी खुद से जोड़ रहे हैं,
थोड़ी सी इनपे नजर कर लो,
सुख देकर इनका दुःख लेलो,
फिर इस जीवन में इक पल में ही,
सब कुछ तुम्हे मिल जाएगा ,
मरने पर जाने क्या होगा ,
जीते जी अमर हो जाएगा,
यही तो जीवन संग्राम है ,
जो इतना न समझ पाया ,
तो  जीवन सारा व्यर्थ गया ,
तू क्यूँ  इस दुनिया में आया? 

Saturday, April 4, 2015

पता नहीं

पता नहीं इंसान,इंसान से क्यूँ डरता है?
        शायद उसे पता नहीं होता कि ,                                                                                                                वह भी एक इंसान है।
        जो आसमा को धरती पर ला दे,
ऐसी उसमे जान है।
उसी के त्याग,तपस्या और बलिदान पे,
        टिका ये सारा जहां है।
आसमाँ से भी उँचे और महान ,
       उसके अरमान है।
अपने सारे अरमानो को जो पूरा कर सके,
      इतना वो बलवान है।
पता नहीं फिर अपनी ही ताकत पर वो ,
     क्यूँ  इतना शक करता है,
पता नहीं इंसान,इंसान से क्यूँ  डरता है?   

सदियों से वीरो की गाथा ,
         अमर रही इस धरती पर ।
 जिनकी गाथा आज यहाँ है,
          वे भी थे कल धरती पर ।
 खेले खाए बड़े हुए थे ,                                                                                                                                            उनके भी घर थे धरती पर ,
  अंतर यह था अटल विस्वास,
         था पूरा उन्हें अपने पर।
 पता नहीं फिर खुद को इतना ,
          गिरा हुआ क्यूँ समझता है ।                                                                                                                 पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?


 किसमें इतनी ताकत है जो,
          पीछे उसे हटा पाए ।
रास्ते में उसके कितने चाहे,
         आँधी या तूफाँ आए,
हिम्मत क्या वो बाधाओं को ,
         देख के  जो घबरा जाए ,
मंजिल जिसको पाना है वो,
          शोलों से भी गुजरता है। 
पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?


 घर की भी इकाई होती है,
         खुद घर एक इकाई नहीं ,
  घर की  सुंदरता के पीछे ,
           किस ईंट  कुर्बानी नहीं?
  छज्जे के  ईंट से पूछो क्या वो ,
           नींव  के ईंट की दीवानी नहीं 
फिर दीवारों के ईंट सा भी,
            क्या ताकत नहीं वो रखता है?
 पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?


क्या होता चाँद के पीछे जो ,
         सूरज का हाथ नहीं होता ?
क्या होता जो धरती के पास
         सूरज का प्रकाश नहीं होता ?
किसी बचपन के सर पे जो ,
          किसी आँचल का छाँव नहीं होता?
कहता है कौन , किसी दिल में ,
          ईश्वर का वास नहीं होता,
अपने इस जीवन के पीछे ,
           किसी श्वास  का हाथ  नहीं होता ?
हर शक्ति अपने पास रखा वो
           खुद से ही दूर क्यों रहता है?
 पता नहीं इंसान, इंसान से क्यूँ डरता है?

Friday, April 3, 2015

औरो की अच्छाई को अपनाना आसान नही है

दोस्तों हम सब बचपन से सुनते आ रहे है की हमें दूसरों की अच्छाई  को अपनाना चाहिए लेकिन हम इसे तभी तो अपनाएंगे जब हम औरों की अच्छाई  का सम्मान करेगे । जबकि ऐसा होता नहीं है। हमारे देश में जितना विरोध अच्छे व्यक्ति का होता है उतना विरोध बुरे लोगो का नहीं होता । यदि ऐसा होता तो हमारा देश स्वर्ग बन गया होता । हम अच्छे व्यक्ति  पर जितना शक करते है यदि बुरे लोगो पर इतना शक करे तो शायद वह अच्छा व्यक्ति बन जाये । हम अच्छे व्यक्ति को जितनी कसौटियों में कसते है , बुरे व्यक्ति को उतनी कसौटियों में क्यों नहीं कसते ? हमारा मन ये मानने  को  कभी तैयार ही नहीं हो पाता  है कि सामने वाला हमसे ज्यादा अच्छा है या हो सकता है या सामने वाले में हमसे अधिक खूबियां है,वो हमसे अधिक अच्छा प्रदर्शन कर सकता है। ये सब हम मानने  को क्यों तैयार नहीं हो पाते ,ये प्रश्न बड़ा ही विचारणीय है।
                                      हमारे देश के युगपुरुष विवेकानंद की अच्छाइयों को पहले विदेश में स्वीकारा गया उसके बाद ही हमारे देश के लोगो ने उन्हें सम्मानित किया ।  ये बड़े ही दुःख की बात है हमारे लिये।  हम अपने आस- पास रहने वाले हीरे-जवाहरातों की पहचान क्यों नहीं कर पाते ? क्यों हम औरों के घरों की ओर  नजरें गड़ाए बैठे रहते है? हालाकि प्रतिभा किसी सम्मान की भूखी नहीं होती और सच्चाई को अंततः स्वीकार करना ही पड़ता है। ईसामसीह की अच्छाइयों को हमने इतना परखा कि उनके हाथों और पैरो में हमने बड़े-बड़े कील ठोक दिये। सीता मैया की अच्छाई को हमने इतना जांचा परखा कि उन्हें  पुनः धरती में समाना पड़ा । आखिर हम और कितना दुःख देंगे अच्छे लोगों को,इसका कोई अंत है की नहीं ?
                                       दोस्तों हमें जागना होगा।  हमें हर बच्चे में विवेकानंद को  देखना होगा। हर व्यक्ति की अच्छाई को देखनी होगी।  औरों की अच्छाइयों का हमें सम्मान करना होगा ,तभी हमारा देश आगे बढ़ेगा।  यदि हम बकरी की भांति मैं - मैं करेंगे तो हमारा विनाश निश्चित रूप से शीघ्र ही हो जाएगा।  हमें दूसरों को सदैव सम्मानित करना चाहिए।  कभी किसी को अपमानित नहीं करना चाहिए।  हमें किसी के  अंदर इतनी नफरत नहीं भरना चाहिए कि  वह ईसा मसीह के हाथों और पैरों में कील ठोंक दे या फिर माता सीता को धरती में समां जाने को मजबूर कर दे या फिर औरों को सम्मानित करते  हुए देखकर  मजबूरी में उसे किसी का सम्मान करना पड़े।  दोस्तों कभी भी ऐसी स्थिति निर्मित न हो इसके लिए जरुरी है कि  हम अपने आस -पास रहने वाले लोगों की अच्छाईयों को ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर ले।
                                                                   जय हिन्द 
                                   

Thursday, April 2, 2015

स्वयं अपने प्रति सत्यनिष्ठ रहें

स्वयं अपने प्रति सत्यनिष्ठ रहने का तात्पर्य है कि हम अपने आप से कुछ भी न छुपाए क्योकि हमारे हर अच्छे और बुरे कर्मो के साक्षी सबसे पहले हम स्वयं ही होते है। आधुनिक युग मे सुख की कामना कौन नही करता? सभी लोग प्रातःकाल उठते ही मशीन की तरह अपने.अपने कार्यो मे लग जाते हैं और रात्रि मे सोने से पहले तक अंधाधुध  अपने.अपने कार्यो के संपादन मे लगे रहते है। इस आधुनिक और मशीनी युग मे हमारी आत्मा कही खो सी गई है। हम सब कुछ जानते है मगर स्वयं को नही पहचानते ये बात हमारे लिये बहुत ही घातक सिद्ध हो रही है। इस भौतिकवादी युग मे मानव केवल और केवल एक मशीन बनकर रह गया है। जिसके पास स्वयं के लिये वक्त नही है ऐसा व्यक्ति केवल और केवल विनाश करता है विकास कभी नही कर सकता। मनुष्य का या मानव जाति का विकास तभी संभव है जब वह अपने शरीर के साथ.साथ अपने मन. बुद्धि और आत्मा के प्रति भी सत्यनिष्ठ रहे। 
                   आज हम अपने बच्चों को बहुत कम उम्र मे ही इस भौतिक जगत मे अकेले छोड दे रहे है जिसके कारण उसका परिचय सबसे होता है लेकिन वह स्वयं को पहचानना भूल जाता है। व्यक्ति जब तक स्वयं को पहचानेगा नही स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ कैसे होगा ये प्रश्न बडा ही विचारणीय है।
            प्रचीन काल मे जब गुरूकुल शिक्षाप्रणाली थी तब विद्यार्थी का परिचय पहले स्वयं से कराया जाता था। एक विद्यार्थी को सर्वप्रथम यह बताया जाता था कि वह कौन है और इस दुनिया मे वह क्यूॅ आया है। इस दुनिया को छोडकर उसे जाना भी है इसलिये उसे इस दुनिया की अच्छाइयो को ग्रहण करना होगा और बुराइयो से कोसो दूर रहना होगा। जब उसे अपने जीवन का उद्देश्य पता हो जाता था। जब वह स्वयं को भली.भांति पहचान लेता था। जब उसे कत्र्तव्याकत्र्तव्य का ज्ञान हो जाता था तभी उसे इस भौतिकवादी जगत मे लोगो से व्यवहार करने के लिये भेजा जाता था। गुरू के ज्ञान व उपदेशो को जो विद्यार्थी अपने जीवन मे नही अपनाता था उसकी दशा दुर्योधन व उनके भाइयों की तरह होती थी जो भौतिक सुख की कामना मे अपने जीवन को ही खो बैठते है और उन्हे कुछ भी हासिल नही होता। 
                  हमे स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ रहने का ज्ञान मिलता है गीता से। गीता मे श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया है वह हमे यह सिखाता है कि हमे स्वयं के प्रति सदैव सत्यनिष्ठ रहना चाहिये और ऐसा करने से व्यक्ति केवल लौकिक सुख ही नही पारलौकिक सुख को भी प्राप्त कर लेता है। जो व्यक्ति स्वयं को पहचानता है और स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ रहता है वह सदैव जागृत अवस्था मे अपना जीवन यापन करता है अतः वह अपने कार्यो का संपादन सदैव सजग रहकर करता है और सही ढंग से अपने कार्यो के निष्पादन के फलस्वरूप वह दुनिया मे एक आदर्श स्थापित करता है। स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठा का आदर्श अर्जुन ने श्री कृष्ण के उपदेशो को ग्रहण करने के पश्चात स्थापित किया है। कौरवो की अपार सेना उनके विरूद्ध खडी हो गई परंतु अर्जुन ने हार नही मानी क्योकि वे स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ थे। अगर वे किसी भी प्रकार से  भावनाओ मे बहकर अपने स्वजनो के द्वारा किये गये अन्याय को स्वीकार कर लेते तो वे स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ नही हो पाते और न ही इतना बडा आदर्श मानव जगत मे स्थापित कर पाते।
             हमे हर घडी इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि दुनिया की नजरो मे गिरने वाला व्यक्ति पुनः उठ जाता है परंतु स्वयं अपनी ही नजरो मे गिरने वाला व्यक्ति फिर कभी नही उठ पाता। मनुष्य अपनी उन्नति या पतन का कारण स्वयं होता है। हम सारी दुनिया से झूठ बोल सकते है परंतु अपने आप से झूठ नही बोल सकते। जो व्यक्ति स्वयं अपनी इज्जत नही करता दुनिया भी उसकी इज्जत नही करती अतएव हमे अपने आत्मोन्नति के लिये सदैव दृढचित्त व स्थिरबुद्धि होकर अपने कत्र्तव्य कर्मो को करते हुए स्वयं के प्रति सत्यनिष्ठ होना चाहिये।