दर्द गर गैरों से मिलता तो बात ही क्या थी,
हमें तो अपनों ने लूटा है,उसी की सजा पा रहें हैं ।
शिकायत गर करें तो किससे और क्या?
हँस-हँस के गम अपनों का उठा रहें है।
जब भी बात आई कि अपना और पराया कौन ?
इशारे दर्द देने वालों की तरफ ही आ रहें है।
पराया कहें तो किसे कहें ,हम तो अपनों से ही,
हर वक्त जख्म खा रहें है।
शीशा टूटता है जैसे शीशे से टकराकर ,
बस वैसे ही अपनों की शक्ल में, पराये की झलक पा रहे हैं।
जानते हैं की दोस्त की शक्ल में , दुश्मन हमारे करीब हैं,
मजबूरी ही है जो उसके कदम से कदम मिला रहे हैं।
ऐसे अपनों से दूर होना, इतना आसान नहीं है,
क्योंकि लोग हमें , ऐसे ही घड़ियों में आजमा रहे हैं।
आसान सा जीवन अगर जिये तो क्या जिये ऐ राही ,
महान तो वही लोग हैं, जो काटों पर चलकर अपनी मंजिल पा रहे हैं।
दफना भी दो गयी अगर अकेले में तो क्या,
लोग आज भी झाँसी की रानी के किस्से सुना रहे हैं।
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